उसके मन मे विरोध के भी भाव थे कि ऐसा करने से वो मना कर दे लेकिन गाओं की अट्ठारह साल की सीधी साधी ग़रीब लड़की जिसने अपना ज़्यादा समय घर मे ही बिताया था,
और शर्मीली होने के साथ साथ वह एक डरपोक किस्म की भी हो गयी थी. और वह अपने घर से बाहर दूसरे जगह यानी भोला पंडित के दुकान मे थी जिसका दरवाजा बंद था और दोपहर के समय एकांत और शांत माहौल मे उसका मन और डर से भर गया था. उसके उपर से भोला पंडित जो उँची जाती के थे और उनका रोबीला कड़क आवाज़ और उससे बहुत कम बातें करने का स्वाभाव ने सावित्री के मन मे बचे खुचे आत्मविश्वास और मनोबल को तो लगभग ख़त्म ही कर दिया था. वैसे वह पहले से ही काफ़ी डरी हुई थी और आज उसका पहला दिन था जब वह दुकान मे भोला पंडित के साथ अकेली थी.
इन सब हालातों मे विरोध ना कर सकने वाली सावित्री को अब पंडित जी के पैर पर हाथ लगाना ही पड़ा. जैसे ही उसने उनके पैर पर हाथ रखा सारा बदन सनसनाहट से गन्गना गया क्योंकि यह एक मर्द का पैर था. जो कि काफ़ी ताकतवर और गाथा हुआ था और जिस पर घने बॉल उगे थे. वैसे सावित्री कभी कभी अपनी मा का पैर दबा देती थी जब वो काफ़ी थॅकी होती और उसे पैर दबाना मा ने ही सिखाया था. इसलिए मा के पैर की बनावट की तुलना मे भोला पंडित का पैर काफ़ी कड़ा और गाथा हुआ था. जहाँ मा के पैर पर बाल एकदम ना थे वहीं भोला पंडित के पैर पर काफ़ी घने बाल उगे थे. बालो को देखकर और छूकर उसे लंगोट मे लगे झांट के बालों की याद आ गयी और फिर से सनसना सी गयी. वह अपने हाथो से भोला पंडित के पैर को घुटने के नीचे तक ही दबाती थी. साथ साथ पंडित जी के बालिश्ट शरीर को भी महसूस करने लगी. जवान सावित्री के लिए किसी मर्द का पैर दबाना पहली बार पड़ा था और सावित्री को लगने लगा था कि किसी मर्द को छूने से उसके शरीर मैं कैसी सनसनाहट होती है. कुछ देर तक सावित्री वैसे ही पैर दबाती रही और पंडित जी के पैर के घने मोटे बालों को अपने हाथों मे गड़ता महसूस करती रही. तभी पंडित जी ने अपने पैर के घुटनो को मोदकर थोड़ा उपर कर दिया जिससे धोती घुटनो और झंघो से कुछ सरक गयी और उनकी पहलवान जैसी गठीली जांघे धोती से बाहर आ गयी. भोला पंडित के पैरों की नयी स्थिति के अनुसार सावित्री को भी थोड़ा पंडित जी की तरफ ऐसे खिसकना पड़ा ताकि उनके पैरो को अपने हाथों से दबा सके. फिर सावित्री पंडित जी के पैर को दबाने लगी लेकिन केवल घुटनो के नीचे वाले हिस्से को ही. कुछ देर तक केवल एक पैर को दबाने के बाद जब सावित्री दूसरे पैर को दबाने के लिए आगे बढ़ी तभी पंडित जी कड़ी आवाज़ मे बोल पड़े "उपर भी" सावित्री के उपर मानो पहाड़ ही गिर पड़ा. वह समझ गयी कि वो जाँघो को दबाने के लिए कह रहे हैं. पंडित जी की बालिश्ट जाँघो पर बाल कुछ और ही ज़्यादा थे. जाँघो पर हाथ लगाते हुए सावित्री अपनी इज़्ज़त को लगभग लूटते देख रही थी. कही पंडित जी क्रोधित ना हो जाए इस डर से जाँघो को दबाने मे ज़्यादा देर करना ठीक नही समझ रही थी.
अब उसके हाथ मे कंपन लगभग साफ पता चल रहा था. क्योंकि सावित्री पंडित जी के जेंघो को छूने और दबाने के लिए मानसिक रूप से अपने को तैयार नही कर पा रही थी. जो कुछ भी कर रही थी बस डर और घबराहट मे काफ़ी बेबस होने के वजह से. उसे ऐसा महसूस होता था की अभी वह गिर कर तुरंत मर जाएगी. शायद इसी लिए उसे सांस लेने के लिए काफ़ी मेहनत करनी पड़ रही थी. उसके घबराए हुए मन मे यह भी विचार आता था कि उसकी मा ने उसके इज़्ज़त को गाओं के अवारों से बचाने के लिए उसे स्कूल की पड़ाई आठवीं क्लास के बाद बंद करवा दिया और केवल घर मे ही रखी. इसके लिए उसकी विधवा मा को काफ़ी संघर्ष भी करना पड़ा. अकेले घर को चलाने के लिए उसे काफ़ी मेहनत करनी पड़ती थी और इसी लिए कई लोगो के घर जा कर बर्तन झाड़ू पोच्छा के काम करती. आख़िर यह संघर्ष वह अब भी कर रही थी. इसीलिए वह सावित्री को गाओं मे कम करने के बजाय वह अधेड़ पंडित जी के दुकान पर काम करने के लिए भेजा था. यही सोचकर की बाप के उमर के अधेड़ भोला पंडित के दुकान पर उसकी लड़की पूरी सुरक्षित रहेगी जैसा की लक्ष्मी ने बताया था कि पंडित जी काफ़ी शरीफ आदमी हैं. लेकिन सीता की यह कदम की सावित्री भी काम कर के इस ग़रीबी मे इज़्ज़त के लिए इस संघर्ष मे उसका साथ दे जिससे कुछ आमदनी बढ़ जाए और सावित्री की जल्दी शादी के लिए पैसे का इंतेज़ाम हो जाए, सावित्री को अब ग़लत लगने लगा था. लेकिन सावित्री अपने मा को बहुत अच्छी तरीके से जानती थी. सीता को इज़्ज़त से बहुत प्यार था और वह कहती भी थी की मैं ग़रीब भले हूँ और मेरे पास पैसे भले ना हो पर मेरे पास इज़्ज़त तो है. यह बात सही भी थी क्योंकि सावित्री को याद था कि उसके बाप के मरने के बाद सीता ने इस ग़रीबी मे अपनी इज़्ज़त मर्यादा को कैसे बचा कर रखने के लिए कैसे कैसे संघर्ष की. जब वह सयानी हुई तब किस तरह से स्कूल की पड़ाई बंद कराके सावित्री को घर मे ही रहने देने की पूरी कोशिस की ताकि गाओं के गंदे माहौल के वजह से उसके इज़्ज़त पर कोई आँच ना आए. और इज़्ज़त के लिए ही गाओं के गंदे माहौल से डरी सीता यह चाहती थी कि सावित्री की बहुत जल्दी शादी कर के ससुराल भेज दिया जे और इसी लिए वह अपने इस संघर्ष मे सावित्री को भी हाथ बताने के लिए आगे आने के लिए कही.वो भी इस उम्मीद से की कुछ पैसे का इंतेज़ाम हो जाए, पंडित जी के दुकान पर काम के लिए मजबूरी मे भेजी थी इन्ही बातों को सोचते हुए सावित्री को लगा की उसके आँख से आँसू गिर जाएँगे और आँखे लगभग दबदबा गयी. और ज्यो ही सावित्री ने अपना काँपता हाथ पंडित जी के घने उगे बालो वाले बालिश्ट जाँघ पर रखी उसे लगा कि उसकी मा और वह दोनो ही इज़्ज़त के लिए कर रहे अंतिम शंघर्ष मे अब हार सी गयी हो. यही सोचते उसके दबदबाई आँखो से आँसू उसके गालों पर लकीर बनाते हुए टपक पड़े. अपने चेहरे पर आँसुओं के आते ही सावित्री ने अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया ताकि पंडित जी की नज़र आँसुओं पर ना पड़ जाए. तभी उसे लगा की पंडित जी उसके आँसुओं को देख लिया हो और दूसरे पल वह उठकर लगभग बैठ गये. सावित्री को लगा की शायद भगवान ने ग़रीब की सुन ली हो और अब इज़्ज़त बच जाय क्योंकि पंडित जी उसके रोने पर तरस खा कर उससे जाँघ ना दब्वाये. ऐसी सोच ने सावित्री के शरीर मे आशा की एक लहर दौड़ा दी. लेकिन अगले पलों मे ऐसा कुछ भी ना हुआ और पंडित जी बगल मे चौकी पर बिछे बिस्तेर के नीचे से एक किताब निकाली और फिर बिना कुछ कहे वैसे ही लेट गये और उस किताब को पढ़ने लगे. सावित्री को लगा कि वो आसमान से गिर गयी हो. नतीज़ा यह की सावित्री अपने आँखो मे आँसू लिए हुए उनके बालिश्ट झांग को दबाने लगी. जो कि बहुत कड़ा था और काफ़ी घने बाल होने के कारण सावित्री के हाथ मे लगभग चुभ से रहे थे. और ऐसा लगता मानो ये बाल सावित्री के हथेली मे गुदगुदी कर रहे हों क्योंकि काफ़ी मोटे और कड़े भी थे. जब भी सावित्री पंडित जी के जाँघ को दबाती उसे महसूस होता की उनके झांग और उसके हाथों के बीच मे उनके कड़े मोटे बाल एक परत सी बना ले रही हों.
और शर्मीली होने के साथ साथ वह एक डरपोक किस्म की भी हो गयी थी. और वह अपने घर से बाहर दूसरे जगह यानी भोला पंडित के दुकान मे थी जिसका दरवाजा बंद था और दोपहर के समय एकांत और शांत माहौल मे उसका मन और डर से भर गया था. उसके उपर से भोला पंडित जो उँची जाती के थे और उनका रोबीला कड़क आवाज़ और उससे बहुत कम बातें करने का स्वाभाव ने सावित्री के मन मे बचे खुचे आत्मविश्वास और मनोबल को तो लगभग ख़त्म ही कर दिया था. वैसे वह पहले से ही काफ़ी डरी हुई थी और आज उसका पहला दिन था जब वह दुकान मे भोला पंडित के साथ अकेली थी.
इन सब हालातों मे विरोध ना कर सकने वाली सावित्री को अब पंडित जी के पैर पर हाथ लगाना ही पड़ा. जैसे ही उसने उनके पैर पर हाथ रखा सारा बदन सनसनाहट से गन्गना गया क्योंकि यह एक मर्द का पैर था. जो कि काफ़ी ताकतवर और गाथा हुआ था और जिस पर घने बॉल उगे थे. वैसे सावित्री कभी कभी अपनी मा का पैर दबा देती थी जब वो काफ़ी थॅकी होती और उसे पैर दबाना मा ने ही सिखाया था. इसलिए मा के पैर की बनावट की तुलना मे भोला पंडित का पैर काफ़ी कड़ा और गाथा हुआ था. जहाँ मा के पैर पर बाल एकदम ना थे वहीं भोला पंडित के पैर पर काफ़ी घने बाल उगे थे. बालो को देखकर और छूकर उसे लंगोट मे लगे झांट के बालों की याद आ गयी और फिर से सनसना सी गयी. वह अपने हाथो से भोला पंडित के पैर को घुटने के नीचे तक ही दबाती थी. साथ साथ पंडित जी के बालिश्ट शरीर को भी महसूस करने लगी. जवान सावित्री के लिए किसी मर्द का पैर दबाना पहली बार पड़ा था और सावित्री को लगने लगा था कि किसी मर्द को छूने से उसके शरीर मैं कैसी सनसनाहट होती है. कुछ देर तक सावित्री वैसे ही पैर दबाती रही और पंडित जी के पैर के घने मोटे बालों को अपने हाथों मे गड़ता महसूस करती रही. तभी पंडित जी ने अपने पैर के घुटनो को मोदकर थोड़ा उपर कर दिया जिससे धोती घुटनो और झंघो से कुछ सरक गयी और उनकी पहलवान जैसी गठीली जांघे धोती से बाहर आ गयी. भोला पंडित के पैरों की नयी स्थिति के अनुसार सावित्री को भी थोड़ा पंडित जी की तरफ ऐसे खिसकना पड़ा ताकि उनके पैरो को अपने हाथों से दबा सके. फिर सावित्री पंडित जी के पैर को दबाने लगी लेकिन केवल घुटनो के नीचे वाले हिस्से को ही. कुछ देर तक केवल एक पैर को दबाने के बाद जब सावित्री दूसरे पैर को दबाने के लिए आगे बढ़ी तभी पंडित जी कड़ी आवाज़ मे बोल पड़े "उपर भी" सावित्री के उपर मानो पहाड़ ही गिर पड़ा. वह समझ गयी कि वो जाँघो को दबाने के लिए कह रहे हैं. पंडित जी की बालिश्ट जाँघो पर बाल कुछ और ही ज़्यादा थे. जाँघो पर हाथ लगाते हुए सावित्री अपनी इज़्ज़त को लगभग लूटते देख रही थी. कही पंडित जी क्रोधित ना हो जाए इस डर से जाँघो को दबाने मे ज़्यादा देर करना ठीक नही समझ रही थी.
अब उसके हाथ मे कंपन लगभग साफ पता चल रहा था. क्योंकि सावित्री पंडित जी के जेंघो को छूने और दबाने के लिए मानसिक रूप से अपने को तैयार नही कर पा रही थी. जो कुछ भी कर रही थी बस डर और घबराहट मे काफ़ी बेबस होने के वजह से. उसे ऐसा महसूस होता था की अभी वह गिर कर तुरंत मर जाएगी. शायद इसी लिए उसे सांस लेने के लिए काफ़ी मेहनत करनी पड़ रही थी. उसके घबराए हुए मन मे यह भी विचार आता था कि उसकी मा ने उसके इज़्ज़त को गाओं के अवारों से बचाने के लिए उसे स्कूल की पड़ाई आठवीं क्लास के बाद बंद करवा दिया और केवल घर मे ही रखी. इसके लिए उसकी विधवा मा को काफ़ी संघर्ष भी करना पड़ा. अकेले घर को चलाने के लिए उसे काफ़ी मेहनत करनी पड़ती थी और इसी लिए कई लोगो के घर जा कर बर्तन झाड़ू पोच्छा के काम करती. आख़िर यह संघर्ष वह अब भी कर रही थी. इसीलिए वह सावित्री को गाओं मे कम करने के बजाय वह अधेड़ पंडित जी के दुकान पर काम करने के लिए भेजा था. यही सोचकर की बाप के उमर के अधेड़ भोला पंडित के दुकान पर उसकी लड़की पूरी सुरक्षित रहेगी जैसा की लक्ष्मी ने बताया था कि पंडित जी काफ़ी शरीफ आदमी हैं. लेकिन सीता की यह कदम की सावित्री भी काम कर के इस ग़रीबी मे इज़्ज़त के लिए इस संघर्ष मे उसका साथ दे जिससे कुछ आमदनी बढ़ जाए और सावित्री की जल्दी शादी के लिए पैसे का इंतेज़ाम हो जाए, सावित्री को अब ग़लत लगने लगा था. लेकिन सावित्री अपने मा को बहुत अच्छी तरीके से जानती थी. सीता को इज़्ज़त से बहुत प्यार था और वह कहती भी थी की मैं ग़रीब भले हूँ और मेरे पास पैसे भले ना हो पर मेरे पास इज़्ज़त तो है. यह बात सही भी थी क्योंकि सावित्री को याद था कि उसके बाप के मरने के बाद सीता ने इस ग़रीबी मे अपनी इज़्ज़त मर्यादा को कैसे बचा कर रखने के लिए कैसे कैसे संघर्ष की. जब वह सयानी हुई तब किस तरह से स्कूल की पड़ाई बंद कराके सावित्री को घर मे ही रहने देने की पूरी कोशिस की ताकि गाओं के गंदे माहौल के वजह से उसके इज़्ज़त पर कोई आँच ना आए. और इज़्ज़त के लिए ही गाओं के गंदे माहौल से डरी सीता यह चाहती थी कि सावित्री की बहुत जल्दी शादी कर के ससुराल भेज दिया जे और इसी लिए वह अपने इस संघर्ष मे सावित्री को भी हाथ बताने के लिए आगे आने के लिए कही.वो भी इस उम्मीद से की कुछ पैसे का इंतेज़ाम हो जाए, पंडित जी के दुकान पर काम के लिए मजबूरी मे भेजी थी इन्ही बातों को सोचते हुए सावित्री को लगा की उसके आँख से आँसू गिर जाएँगे और आँखे लगभग दबदबा गयी. और ज्यो ही सावित्री ने अपना काँपता हाथ पंडित जी के घने उगे बालो वाले बालिश्ट जाँघ पर रखी उसे लगा कि उसकी मा और वह दोनो ही इज़्ज़त के लिए कर रहे अंतिम शंघर्ष मे अब हार सी गयी हो. यही सोचते उसके दबदबाई आँखो से आँसू उसके गालों पर लकीर बनाते हुए टपक पड़े. अपने चेहरे पर आँसुओं के आते ही सावित्री ने अपना चेहरा दूसरी तरफ कर लिया ताकि पंडित जी की नज़र आँसुओं पर ना पड़ जाए. तभी उसे लगा की पंडित जी उसके आँसुओं को देख लिया हो और दूसरे पल वह उठकर लगभग बैठ गये. सावित्री को लगा की शायद भगवान ने ग़रीब की सुन ली हो और अब इज़्ज़त बच जाय क्योंकि पंडित जी उसके रोने पर तरस खा कर उससे जाँघ ना दब्वाये. ऐसी सोच ने सावित्री के शरीर मे आशा की एक लहर दौड़ा दी. लेकिन अगले पलों मे ऐसा कुछ भी ना हुआ और पंडित जी बगल मे चौकी पर बिछे बिस्तेर के नीचे से एक किताब निकाली और फिर बिना कुछ कहे वैसे ही लेट गये और उस किताब को पढ़ने लगे. सावित्री को लगा कि वो आसमान से गिर गयी हो. नतीज़ा यह की सावित्री अपने आँखो मे आँसू लिए हुए उनके बालिश्ट झांग को दबाने लगी. जो कि बहुत कड़ा था और काफ़ी घने बाल होने के कारण सावित्री के हाथ मे लगभग चुभ से रहे थे. और ऐसा लगता मानो ये बाल सावित्री के हथेली मे गुदगुदी कर रहे हों क्योंकि काफ़ी मोटे और कड़े भी थे. जब भी सावित्री पंडित जी के जाँघ को दबाती उसे महसूस होता की उनके झांग और उसके हाथों के बीच मे उनके कड़े मोटे बाल एक परत सी बना ले रही हों.
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