Thursday 12 March 2015

Mere Gao Ki Ladki Ki Chudai Part-1

सावित्री एक 18 साल की गाओं की लड़की है जिसका बाप बहुत पहले ही मर चुका था और एक मा और एक छोटा भाई घर मे था. ग़रीबी के चलते मा दूसरों के घरों मे बर्तन झाड़ू करती और किसी तरह से अपना और बचों का पेट भर लेती. आख़िर ग़रीबी तो सबसे बड़ा पाप है,,, यही उसके मन मे आता और कभी -2 बड़बड़ाती .. गाओं का माहौल भी कोई बहुत अच्छा नही था और इसी के चलते सावित्री बेटी की पड़ाई केवल आठवीं दर्ज़े तक हो सकी. अवारों और गुन्दो की कमी नहीं थी. बस इज़्ज़त बची रहे एसी बात की चिंता सावित्री की मा सीता को सताती थी. क्योंकि सीता जो 38 साल की हो चुकी थी करीब दस साल पहले ही विधवा हो चुकी थी..... ज़िम्मेदारियाँ और परेशानियो के बीच किसी तरह जीवन की गाड़ी चलती रहे यही रात दिन सोचती और अपने तकदीर को कोस्ती. सावित्री के सयाने होने से ये मुश्किले और बढ़ती लग रही थी क्योंकि उसका छोटा एक ही बेटा केवल बारह साल का ही था क्या करता कैसे कमाता... केवल सीता को ही सब कुछ करना पड़ता. गाओं मे औरतों का जीवन काफ़ी डरावना होता जा रहा था क्योंकि आए दिन कोई ना कोई शरारत और छेड़ छाड़ हो जाता.. एसी लिए तो सावित्री को आठवीं के बाद आगे पढ़ाना मुनासिब नहीं समझा. सीता जो कुछ करती काफ़ी सोच समझ कर.. लोग बहुत गंदे हो गये हैं " यही उसके मन मे आता. कभी सोचती आख़िर क्यों लोग इतने गंदे और खराब होते जा रहें है.. एक शराब की दुकान भी गाओं के नुक्कड़ पर खुल कर तो आग मे घी का काम कर रही है. क्या लड़के क्या बूढ़े सब के सब दारू पी कर मस्त हो जाते हैं और गंदी गलियाँ और अश्लील हरकत लड़ाई झगड़ा सब कुछ शुरू हो जाता.. वैसे भी दारू की दुकान अवारों का बहुत बढ़ियाँ अड्डा हो गया था. रोज़ कोई ना कोई नयी बात हो ही जाती बस देर इसी बात की रहती कि दारू किसी तरह गले के नीचे उतर जाए...फिर क्या कहना गालिया और गंदी बातों का सिलसिला शुरू होता की ख़त्म होने का नाम ही नही लेता . चार साल पहले सावित्री ने आठवीं दर्ज़े के बाद स्कूल छोड़ दिया .. वो भी मा के कहने पर क्योंकि गाओं मे आवारा और गुन्दो की नज़र सावित्री के उपर पड़ने का डर था. ए भी बात बहुत हद तक सही थी. ऐसा कुछ नही था कि सीता अपने लड़की को पढ़ाना नहीं चाहती पर क्या करे डर इस बात का था कि कहीं कोई उनहोनी हो ना जाए. चार साल हो गये तबसे सावित्री केवल घर का काम करती और इधेर उधेर नही जाती. कुछ औरतों ने सीता को सलाह भी दिया कि सावित्री को भी कहीं किसी के घर झाड़ू बर्तन के काम पे लगा दे पर सीता दुनिया के सच्चाई से भली भाँति वाकिफ़ थी. वह खुद दूसरों के यहाँ काम करती तो मर्दो के रुख़ से परिचित थी.. ये बात उसके बेटी सावित्री के साथ हो यह उसे पसंद नहीं थी. मुहल्ले की कुछ औरतें कभी पीठ पीछे ताने भी मारती " राजकुमारी बना के रखी है लगता है कभी बाहर की दुनिया ही नही देखेगी...बस इसी की एक लड़की है और किसी की तो लड़की ही नहीं है.." धन्नो जो 44 वर्ष की पड़ोस मे रहने वाली तपाक से बोल देती.. धन्नो चाची कुछ मूहफट किस्म की औरत थी और सीता के करीब ही रहने के वजह से सबकुछ जानती भी थी. अट्ठारह साल होते होते सावित्री का शरीर काफ़ी बदल चुका था , वह अब एक जवान लड़की थी, माहवारी तो 15 वर्ष की थी तभी से आना शुरू हो गया था. वह भी शरीर और मर्द के बारे मे अपने सहेलिओं और पड़ोसिओं से काफ़ी कुछ जान चुकी थी. वैसे भी जिस गाँव का माहौल इतना गंदा हो और जिस मुहल्ले मे रोज झगड़े होते हों तो बच्चे और लड़कियाँ तो गालिओं से बहुत कुछ समझने लगते हैं. धन्नो चाची के बारे मे भी सावित्री की कुछ सहेलियाँ बताती हैं को वो कई लोगो से फासी है. वैसे धन्नो चाची की बातें सावित्री को भी बड़ा मज़ेदार लगता. वो मौका मिलते ही सुनना चाहती. धन्नो चाची किसी से भी नही डरती और आए दिन किसी ना किसी से लड़ाई कर लेती. एक दिन सावित्री को देख बोल ही पड़ी " क्या रे तेरे को तो तेरी मा ने क़ैद कर के रख दिया है. थोड़ा बाहर भी निकल के देख, घर मे पड़े पड़े तेरा दीमाग सुस्त हो जाएगा; मा से क्यो इतना डरती है " सावित्री ने अपने शर्मीले स्वभाव के चलते कुछ जबाब देने के बजाय चुप रह एक हल्की मुस्कुराहट और सर झुका लेना ही सही समझा. वह अपने मा को बहुत मानती और मा भी अपनी ज़िम्मेदारीओं को पूरी तरीके से निर्वहन करती. वाश्तव मे सावित्री का चरित्र मा सीता के ही वजह से एस गंदे माहौल मे भी सुरच्छित था. सावित्री एक सामानया कद काठी की शरीर से भरी पूरी मांसल नितंबो और भारी भारी छातियो और काले घने बाल रंग गेहुआन और चहेरे पर कुछ मुहाँसे थे. दिखने मे गदराई जवान लड़की लगती. सोलह साल मे शरीर के उन अंगो पर जहाँ रोएँ उगे थे अब वहाँ काफ़ी काले बात उग आए थे. सावित्री का शरीर सामान्य कद 5'2 '' का लेकिन चौड़ा और मांसल होने के वजह से चूतड़ काफ़ी बड़ा बड़ा लगता था.

एक दम अपनी मा सीता की तरह. घर पर पहले तो फ्रॉक पहनती लेकिन जबसे जंघे मांसल और जवानी चढ़ने लगी मा ने सलवार समीज़ ला कर दे दिया. दुपट्टा के हटने पर सावित्री के दोनो चुचियाँ काफ़ी गोल गोल और कसे कसे दिखते जो पड़ोसिओं के मूह मे पानी लाने के लिए काफ़ी था ये बात सच थी की इन अनारों को अभी तक किसी ने हाथ नही लगाया था. लेकिन खिली जवानी कब तक छुपी रहेगी , शरीर के पूरे विकास के बाद अब सावित्री के मन का भी विकास होने लगा. जहाँ मा का आदेश की घर के बाहर ना जाना और इधेर उधर ना घूमना सही लगता वहीं धन्नो चाची की बात की घर मे पड़े पड़े दीमाग सुस्त हो जाएगा " कुछ ज़्यादा सही लगने लगा. फिर भी वो अपने मा की बातों पर ज़्यादा गौर करती सीता के मन मे सावित्री के शादी की बात आने लगी और अपने कुछ रिश्तेदारों से चर्चा भी करती, आख़िर एस ग़रीबी मैं कैसे लड़की की शादी हो पाएगी. जो भी कमाई मज़दूरी करने से होती वह खाने और पहनने मैं ही ख़त्म हो जाता. सीता को तो नीद ही नही आती चिंता के मारे इधेर छोटे लड़के कालू की भी पढ़ाई करानी थी रिश्तेदारों से कोई आशा की किरण ना मिलने से सीता और परेशान रहने लगी रात दिन यही सोचती कि आख़िर कौन है जो मदद कर सकता है सीता कुछ क़र्ज़ लेने के बारे मे सोचती तो उस अयाश मंगतराम का चेहरा याद आता जो गाओं का पैसे वाला सूदखोर बुद्धा था और अपने गंदी हरक़त के लिए प्रषिध्ह था तभी उसे याद आया कि जब उसके पति की मौत हुई थी तब पति का एक पुराना दोस्त आया था जिसका नाम सुरतलाल था, वह पैसे वाला था और उसके सोने चाँदी की दुकान थी और जात का सुनार था उसका घर सीता के गाओं से कुछ 50 मील दूर एक छोटे शहर मे था, बहुत पहले सीता अपने पति के साथ उसकी दुकान पर गयी थी जो एक बड़े मंदिर के पास थी सीता की आँखे चमक गयी की हो सकता है सुरतलाल से कुछ क़र्ज़ मिल जाए जो वह धीरे धीरे चुकता कर देगी
एक दिन समय निकाल कर सीता उस सुरतलाल के दुकान पर गयी तो निराशा ही हाथ लगी क्योंकि सुरतलाल को इस बात का यकीन नहीं था कि सीता उसका क़र्ज़ कैसे वापस करसकेगी..... सीता की परेशानियाँ और बढ़ती नज़र आ रही थी कभी इन उलज़हनो मे यह सोचती कि यदि सावित्री भी कुछ कम करे तो आमदनी बढ़ जाए और शादी के लिए पैसे भी बचा लिया जाए चौतरफ़ा समस्याओं से घिरता देख सीता ने लगभग हथियार डालना शुरू कर दिया.. अपनी ज़िद , सावित्री काम करने के बज़ाय घर मे ही सुरक्ष्हित रखेगी को वापस लेने लगी उसकी सोच मे सावित्री के शादी के लिए पैसे का इंतज़ाम ज़्यादा ज़रूरी लगने लगा. गाओं के मंगतराम से क़र्ज़ लेने का मतलब कि वह सूद भी ज़्यादा लेता और लोग यह भी सोचते की मंगतराम मज़ा भी लेता होगा, इज़्ज़त भी खराब होती सो अलग. सीता की एक सहेली लक्ष्मी ने एक सलाह दी कि "सावित्री को क्यो ना एक चूड़ी के दुकान पर काम करने के लिए लगा देती " यह सुनकर की सावित्री गाओं के पास छोटे से कस्बे मे कॉसमेटिक चूड़ी लिपीसटिक की दुकान पर रहना होगा, गहरी सांस ली और सोचने लगी. सहेली उसकी सोच को समझते बोली " अरी चिंता की कोई बात नही है वहाँ तो केवल औरतें ही तो आती हैं, बस चूड़ी, कंगन, और सौंदर्या का समान ही तो बेचना है मालिक के साथ, बहुत सारी लड़कियाँ तो ऐसे दुकान पर काम करती हैं " इस बात को सुन कर सीता को संतुष्टि तो हुई पर पूछा " मालिक कौन हैं दुकान का यानी सावित्री किसके साथ दुकान पर रहेगी" इस पर सहेली लक्ष्मी जो खुद एक सौंदर्या के दुकान पर काम कर चुकी थी और कुछ दुकानो के बारे मे जानती थी ने सीता की चिंता को महसूस करते कहा " अरे सीता तू चिंता मत कर , दुकान पर चाहे जो कोई हो समान तो औरतों को ही बेचना है , बस सीधे घर आ जाना है, वैसे मैं एक बहुत अच्छे आदमी के सौंदर्या के दुकान पर सावित्री को रखवा दूँगी और वो है भोला पंडित की दुकान, वह बहुत शरीफ आदमी हैं , बस उनके साथ दुकान मे औरतों को समान बेचना है, उनकी उम्र भी 50 साल है बाप के समान हैं मैं उनको बहुत दीनो से जानती हूँ, इस कस्बे मे उनकी दुकान बहुत पुरानी है, वे शरीफ ना होते तो उनकी दुकान इतने दीनो तक चलती क्या?" सीता को भोला पंडित की बुढ़ापे की उम्र और पुराना दुकानदार होने से काफ़ी राहत महसूस कर, सोच रही थी कि उसकी बेटी सावित्री को कोई परेशानी नही होगी.
लक्ष्मी की राय सीता को पसंद आ गयी , आखिर कोई तो कोई रास्ता निकालना ही था क्योंकि सावित्री की शादी समय से करना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी थी. दुसरे दिन लक्ष्मी के साथ सावित्री भोला पंडित के सौंदर्य प्रसाधन के दुकान के लिए चली. कस्बे के एक संकरी गली में उनकी दुकान थी. दुकान एक लम्बे कमरे में थी जिसमे आगे दुकान और पिछले हिस्से में पंडित भोला रहते थे. उनका परिवार दुसरे गाँव में रहता था. लक्ष्मी ने सीता को भोला पंडित से परिचय कराया , स्वभाव से शर्मीली सीता ने सिर नीचे कर हल्की सी मुस्कराई. प्रणाम करने में भी लजा रही थी कारण भी था की वह एक गाँव की काफी शरीफ औरत थी और भोला पंडित से पहली बार मुलाकात हो रही थी. " अरे कैसी हो लक्ष्मी , बहुत दिनों बाद दिखाई दी , मैंने बहुत ईन्तजार किया तुम्हारा , मेरी दुकान पर तुम्हारी बहुत जरूरत है भाई" भोला पंडित ने अपनी बड़ी बड़ी आँखों को नाचते हुए पूछा. " अरे क्या करूँ पंडित जी मेरे ऊपर भी बहुत जिम्मेदारिया है उसी में उलझी रहती हूँ फुर्सत ही नहीं मिलती" लक्ष्मी ने सीता की ओर देखते मुस्कुराते हुए जवाबदिया "जिम्मेदारियो में तो सबकी जिंदगी है लक्ष्मी कम से कम खबर क्र देती , मैं तो तुम्हारे इस आश्वाशन पर की जल्दी मेरे दुकान पर काम करोगी मैंने किसी और लड़की या औरत को ढूंढा भी नहीं" भोला पंडित ने सीता की ओर देखते हुए लक्ष्मी से कुछ शिकायती लहजे में कहा, " मुझे तो फुर्सत अभी नहीं है लेकिन आपके ही काम के लिए आई हूँ और मेरी जगह इनकी लड़की को रख लीजिये . " सीता की ओर लक्ष्मी ने इशारा करते हुए कहा. भोला पंडित कुछ पल शांत रहे फिर पूछे "कौन लड़की है कहाँ , किस दुकान पर काम की है" शायद वह अनुभव जानना चाहते थे "अभी तो कही काम नहीं की है कहीं पर आपके दुकान की जिम्मेदारी बखूबी निभा लेगी " लक्ष्मी ने जबाव दिया लेकिन भोला पंडित के चेहरे पर असंतुष्टि का भाव साफ झलक रहा था शायद वह चाहते थे की लक्ष्मी या कोई पहले से सौन्दर्य प्रसाधन की दुकान पर काम कर चुकी औरत या लड़की को ही रखें . भोला पंडित के रुख़ को देखकर सीता मे माथे पर सिलवटें पड़ गयीं. क्योंकि सीता काफ़ी उम्मीद के साथ आई थी कि उसकी लड़की दुकान पर काम करेगी तब आमदनी अच्छी होगी जो उसके शादी के लिए ज़रूरी था. सीता और लक्ष्मी दोनो की नज़रें भोला पंडित के चेहरे पर एक टक लगी रही कि अंतिम तौर पर क्या कहतें हैं. लक्ष्मी ने कुछ ज़ोर लगाया "पंडित जी लड़की काफ़ी होशियार और समझदार है आपके ग्राहको को समान बखूबी बेच लेगी , एक बार मौका तो दे कर देख लेने मैं क्या हर्ज़ है" पंडित जी माथे पर हाथ फेरते हुए सोचने लगे. एक लंबी सांस छोड़ने के बाद बोले "अरे लक्ष्मी मेरे ग्राहक को एक अनुभवी की ज़रूरत है जो चूड़ी, कंगन, बिंदिया के तमाम वरीटीएस को जानती हो और ग्राहको के नस को टटोलते हुए आराम से बेच सके, तुम्हारी लड़की तो एक दम अनाड़ी है ना, और तुम तो जानती हो कि आजकल समान बेचना कितना मुश्किल होता जा रहा है." सीता चुपचाप एक तक दोनो के बीच के बातों को सुन रही थी. तभी भोला पंडित ने काफ़ी गंभीरता से बोले " लक्ष्मी मुश्किल है मेरे लिए" सीता के मन मे एक निराशा की लहर दौर गयी. थोड़ी देर बाद कुछ और बातें हुई और भोला पंडित के ना तैयार होने की दशा मे दोनो वापस गाओं की ओर चल दी. रास्ते मे लक्ष्मी ने सीता से बोला "तुमने तो लड़की को ना तो पढ़ाया और ना ही कुछ सिखाया और बस घर मैं बैठाए ही रखा तो परेशानी तो होगी ही ना; कहीं पर भी जाओ तो लोग अनुभव या काम करने की हुनर के बारे मे तो पूछेनएगे ही " सीता भी कुछ सोचती रही और रास्ते चलती रही, फिर बोली "अरे तुम तो जानती हो ना की गाओं का कितना गंदा माहौल है कि लड़की का बाहर निकलना ही मुश्किल है, हर जगह हरामी कमीने घूमते रहते हैं, और मेरे तो आगे और पीछे कोई भी नही है कि कल कुछ हो जाए ऐसा वैसा तो" लक्ष्मी फिर जबाव दी पर कुछ खीझ कर " तुम तो बेवजह डरती रहती हो, अरे हर जगह का माहौल तो एसी तरह का है तो इसका यह मतलब तो नही कि लोग अपने काम धंधा छोड़ कर घर मे तेरी बेटी की तरह बैठ जाए. लोग चाहे जैसा हो बाहर निकले बगैर तो कम चलने वाला कहा है. सब लोग जैसे रहेंगे वैसा ही तो हमे भी रहना होगा; " सीता कुछ चुपचाप ही थी और रास्ते पर पैदल चलती जा रही थी. लक्ष्मी कुछ और बोलना सुरू किया "देखो मेरे को मैं भी तो दुकान मैं नौकरी कर लेती इसका ये मतलब तो नही की मेरा कोई चरित्र ही नही या मैं ग़लत हूँ ; ऐसा कुछ नही है बस तुमहरे मन मे भ्रम है कि बाहर निकलते ही चरित्र ख़तम हो जाएगा" सीता ने अपना पच्छ को मजबूत करने की कोशिस मे तर्क दे डाला "तुम तो देखती हो ना की रास्ते मैं यदि ये दारूबाज़ लोफर, लफंगे मिलते हैं तो किस तरह से गंदी बोलियाँ बोलते है, आख़िर मेरी बेटी तो अभी बहुत कच्ची है क्या असर पड़ेगा उसपर" लक्ष्मी के पास भी एसका जबाव तैयार था "मर्दों का तो काम ही यही होता है कि औरत लड़की देखे तो सीटी मार देंगे या कोई छेड़छाड़ शरारत भरी अश्लील बात या बोली बोल देंगे; लेकिन वी बस एससे ज़्यादा और कुछ नही करते, ; और इन सबको को सुनना ही पड़ता है इस दुनिया मे सीता" आगे और बोली "इन बातों को सुन कर नज़रअंदाज कर के अपने काम मे लग जाना ही समझदारी है सीता, तुम तो बाहर कभी निकली नही एसीलिए तुम इतना डरती हो" सीता को ये बाते पसंद नही थी लेकिन एन बातों को मानना जैसे उसकी मज़बूरी दिखी और यही सोच कर सीता ने पलट कर जबाव देना उचित नहीं समझा सीता एक निराश, उदास, और परेशान मन से घर मे घुसी और सावित्री की ओर देखा तभी सावित्री ने जानना चाहा तब सीता ने बताया कि भोला पंडित काम जानने वाली लड़की को रखना चाहता है. वैसे सावित्री के मन मे सीखने की ललक बहुत पहले से ही थी पर मा के बंदिशो से वह सारी ललक और उमंग मर ही गयी थी.

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